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मानवता का प्रचारक आर्य समाज

उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वप्रमुख जन-आन्दोलन आर्य समाज मूलत: मानवता प्रचारक महासंघ है। मानवता अथवा मानव-धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ही इसका जन्म हुआ था और गत ड़ेढ शताब्दी से भी अधिक समय से यह मानवता का प्रचार कर रहा है। प्रश्न उठता है कि वह मानवता जिसका आर्यसमाज विगत ड़ेढ शताब्दी से प्रचार करता आ रहा है, अन्तत: है क्या चीज?

मानवता क्या है? मानवता मानव की सुगन्धि है, सार-सर्वस्व है। मानव धर्म का ही दूसरा नाम मानवता है। मानवता क्या है? इस रहस्य को जानने के लिए हमें मानव शब्द के निर्वचन पर विशेष ध्यान देना होगा। मानव, मानुष, मनुष्य तथा मनुज आदि शब्द पर्यायवाची हैं जो मूल धातु "मनु" ज्ञाने या "मनु अवबोधने" से निष्पन्न हैं। इन सबका एक ही अर्थ निकलता है कि जिस व्यक्ति के कर्मों में ज्ञान अथवा विवेक समाविष्ट है उसी में मानवता का उदय माना जा सकता है। वैसे मानवता पशुता का प्रतिवा है। जहॉं पशुता मिट जाती है समझ लो कि वहीं से मानवता का उदय होने लग जाता है। यदि गम्भीरतापूर्वक देखा जाए तो मानवता का अर्थ वासना पर विवेक की विजय है। विवेक पर वासना की विजय तो पशुता ही कही जाएगी। सद्‌गुणों, सद्‌भावनाओं, सद्‌आचरणों तथा सद्‌व्यवहारों से युक्त पुरुषत्व का नाम ही मानवता है। मावनता में वे सब शुभ सात्विक, सत्‌सामर्थ्य केन्द्रित हैं, तो हमें पशुत्व या असुरत्व से ऊँचा उठाते हैं और हमारी प्रवृत्ति को सदाचार, संयम, परमार्थ-सिद्धि, बुद्धि विवेक, सहिष्णुता की ओर रखते हैं। विवेचन से यही परिणाम निकलता है कि मानवता का वास्तविक अर्थ मानव धर्म है और आर्यसमाज इसी का प्रचारक है। गत ड़ेढ शताब्दी से आर्यसमाज विश्व के जनमानस के सम्मुख मानव धर्म के सही स्वरूप को उपस्थित करने में लगा है। यही मानवता का प्रचार है।

Ved Katha 1 part 3 (Greatness of India & Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha
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मानवता का एकमात्र प्रचारक- आर्यसमाज मानवता का एकमात्र प्रचारक है। आज हम संसार के विभिन्न मतमतान्तरों के प्रचारकों एवम्‌ उनके कार्यक्रमों को देखते हैं तो पता चलता है कि इनमें से मानवता का प्रचारक कोई नहीं है। कोई हिन्दुत्व का प्रचारक है तो कोई इस्लाम काकोई ईसाइयत का प्रचारक है तो कोई बौद्धधर्म काकोई सिख धर्म का तो कोई जैन धर्म का। पर मनुष्यत्व कामानवता का अथवा मानव धर्म का प्रचारक आर्यसमाज को छोड़कर कोई दिखाई नहीं देता। आज जो पुकार सुनाई देती है वह यही है कि हजरत मुहम्मद साहब पर ईमान लाओ और मुसलमान बनो अथवा हजरत ईसामसीह पर ईमान लाओ और ईसाई बनो अथवा महात्मा बुद्ध पर विश्वास रखो और बौद्ध बनो अथवा महावीर आदि तीर्थंकरों पर विश्वास रखो और जैन बनो अथवा सिख गुरुओं पर ईमान लाओ और सिख बनो अथवा हिन्दू देवी-देवताओं पर विश्वास लाओ और हिन्दू बनो। पर दु:ख है कोई भी यह नहीं कहता कि विश्व-नियन्ता प्रभु पर विश्वास लाओ और इन्सान बनो। आर्यसमाज और उसके संस्थापक का सुस्पष्ट उद्‌घोष है कि एकमात्र ईश्वर ही हमारा उपास्य अथवा ईमान लाने योग्य है और उसी की यह भी घोषणा है कि "आर्य" अर्थात्‌ श्रेष्ठ मानव बनो। आर्यसमाज आर्यसमाजी अथवा दयानन्द मतावलम्बी बनाने की बात कहीं भी एवम्‌ कभी भी नहीं कहता। वह तो वेद के ही उद्‌घोष "कृण्वन्तो विश्वमार्य्यम्‌" और "मनुर्भव" को ही सदैव दुहराता है।

श्रेष्ठ मानव बनो- आर्यसमाज ने "कृण्वन्तो विश्वमार्य्यम्‌" का उद्‌घोष कर विश्व को आर्य अर्थात्‌ श्रेष्ठ मानव बनाने का पवित्रतम महाभियान छेड़ा है। वही वेद का "मनुर्भव" का जयघोष गुंजरित करता है। वेद हमें इस उद्‌घोष के द्वारा मनुष्य बनने का आह्वान करता है। वेद का यह आह्वान पशु-पक्षियों के लिए तो है नहीं और न ही पशु पक्षी मनुष्य बन ही सकते हैं। तो फिर मनुष्य के लिए मनुष्य बनने का वेद का यह उपदेश कैसाक्या मनुष्य का शरीर धारण करके भी हम मनुष्य नहींबात तो कुछ ऐसी ही है- भरी मरदुन से गो सरजमीं है। बली देखने को पर इन्सान नहीं है।

अपनी इस विस्तृत वसुन्धरा पर मनुष्य के कोष्ठक में लिखे जाने वाले जनगणना के रजिस्टर में पांच अरब से भी अधिक प्राणी होंगेपर क्या सारे के सारे मनुष्य अथवा मानव हैं?  नहींसभी मनुष्य अथवा मानव नहीं। तभी तो वेद का यह उपदेश है। पर ऐसा क्योंउत्तर जिगर मुरादाबादी के शब्दों में इस प्रकार है-

इस जमाने का इनकलाब न पूछरूह शैतान की शक्ल आदम की।

हम शक्ल सूरत से मनुष्य हैंपर गुण-कर्म-स्वभाव से मनुष्यता की सुगन्धि नहीं आतीहम कहने को ही मनुष्य हैं। महर्षि दयानन्द की सुस्पष्ट घोषणा है कि "जैसे पशु बलवान होकर निर्बलों को दु:ख देते और मार भी डालते हैंजब मनुष्य शरीर पा के वैसा ही कर्म करते हैं तो मनुष्य स्वभावयुक्त नहींकिन्तु पशुवत्‌ हैं और जो बलवान होकर निर्बलों की रक्षा करता हैवही मनुष्य कहलाता है और जो स्वार्थवश पर हानि-मात्र करता हैवह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।" ठीक ऐसी ही बात विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी कही है। यथा "मनुष्य जब पशु बन जाता है तो उस समय वह पशु से भी बदतर हो जाता है।" यही कारण है कि आर्यसमाज मानवता का प्रचार करता है एवम्‌ मनुष्य बनने की बात कहता है।

मानव का निर्माण नही- दु:ख इस बात का है कि आज संसार में प्राय: सभी कुछ हो रहा हैपर यदि कुछ नहीं हो पा रहा तो मानव के निर्माण का कार्य नहीं हो रहा। फलों-फूलों और फसलों की किस्में सुधारने की तथा पशु-पक्षियों की नस्लें सुधारने की योजनाएं तो प्राय: बनती रहती हैं एवं अब भी बन रही हैंपर मानव निर्माण की कोई योजना (आर्यसमाज को छोड़कर) कहीं बन-बना रही हैखुमार बाराबंकवी की यह शिकायत सर्वथा उचित ही है कि-

सभी कुछ हो रहा हैइस तरक्की के जमाने में।
मगर यह क्या गजब हैआदमी इन्सान नहीं होता।     

हम बान्ध बान्धतेनहरें खोदतेरेलें बिछाते हैंपरन्तु कहॉं है वह मानव जिनके लिए हम यह सब कुछ करते हैं। अगर वह सच्चा न होईमानदार न होदुराचारी होभ्रष्टाचारी होतो यह सारा पार्थिव वैभव किस काम काजिस मानव की सुख सुविधा के लिए संसार के भोग ऐश्वर्य खड़े किए जा रहे हैंयोजनाएं बनाई जा रही हैंउस मानव के निर्माण के लिए हमने क्या योजना बनाई हैमानव बनाने की चिन्ता किस को हैआर्यसमाज और उसके मान्य मनीषियों को। शरत्‌ बाबू ने कहा था कि "मनुष्य  का मरना मुझे उतनी चोट नहीं पहुंचाता जितनी कि मनुष्यत्व की मौत।" आर्यसमाज भी मनुष्यत्व की मौत से अत्यधिक उद्विग्न हैव्याकुल हैपरेशान है। पर वह हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठान बैठ ही सकता है। वह मानव निर्माण के कार्य में जुटकर मानवता को दुबारा जीवन दे रहा है।

आर्यसमाज की मानव-निर्माण योजना- आर्यसमाज केवल मानव निर्माण की बात ही नहीं करता। अथवा उसकी आवश्यकता पर केवल बल ही नहीं देताअपितु मानव-निर्माण की व्यावहारिक योजना भी प्रस्तुत करता है। उसके उद्देश्य (नियम)उसके सिद्धान्तउसके कार्यक्रम सभी मानव-निर्माण के विभिन्न सोपान हैं। आर्यसमाज के दस नियम मानवता के आधार स्तम्भ हैं। इन नियमों में मानव की सर्वांगीण उन्नति की जो परिकल्पना की गईवह अन्यत्र देखने सुनने को कहीं नहीं मिलती। शारीरिकआत्मिक और सामाजिक उन्नति का जो मूलमन्त्र इन नियमों में हैउसकी कोई उपमा नहीं। आज शारीरिक उन्नति के बाद सामाजिक उन्नति की बात की जाती है। पर याद रखेंआत्मिक उन्नति के बिना सामाजिक उन्नति तीन काल में भी सम्भव नहीं। आर्यसमाज के नियमों में जो क्रम हैउसका अपना ही महत्व है। अर्थात्‌ पहले शारीरिक उन्नतिफिर आत्मिक और बाद में सामाजिक उन्नति। सामाजिक उन्नति का जो मूलमन्त्र आर्यसमाज के इन दस नियमों में हैउसका महत्व केवल इसी बात से आंका जा सकता है कि यह व्यक्ति की अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहकर सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझने की बात कहते हैं। महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज ठीक ही लिखते हैं कि "आर्यसमाज के नियम यद्यपि गणना में केवल दस हैंपरन्तु उनके भीतर इतनी सामग्री मौजूद है जो व्यक्ति और समाज को अधिक से अधिक उन्नत बनाने के लिए पर्याप्त है।" वस्तुत: आर्यसमाज के नियम मानव-निर्माण के सूत्र हैंजिन पर चलकर कोई भी व्यक्ति मानव-पद प्राप्त कर सकता है। आर्यसमाज की मान्यता है कि वेदप्रतिपादित पथ पर चले बिना श्रेष्ठ मानव का निर्माण कदापि नहीं हो सकता। अत: यदि मानव को मानव बनाना है तो वेद-पथ का अनुसरण अत्यन्त आवश्यक है। वेद जहॉं पूर्ण मानव बनने की शिक्षा देता हैवहॉं वह मानव का सर्वोच्च आदर्श भी उपस्थित करता है। यह श्रेय आर्यसमाज को ही जाता है कि उसने भूली-बिसरी वेद-विद्या की ओर संसार का ध्यान आकृष्ट किया। आर्यसमाज  वेद की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार कर वस्तुत: मानवता का ही प्रचार-प्रसार कर रहा है। वेद प्रचार मानव-निर्माण आन्दोलन का ही दूसरा नाम है। मानवता के प्रचार हेतु ही आर्यसमाज यम-नियमों के पालन पर अधिक बल देता है। आर्यसमाज यम-नियमों तथा धर्म के दस लक्षणों को मानवता का आधार-स्तम्भ मानता है।

वैदिक-संस्कार- आर्यसमाज मानव-निर्माण एवं मानवता के प्रचार की जो योजना प्रस्तुत करता हैसंस्कार उसके प्रमुख अंग हैं। मानव-निर्माण में संस्कारों का महत्व इसी बात से जाना जा सकता है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती को इसके लिए एक अलग ग्रन्थ "संस्कार विधि" के नाम से रचना पड़ा था। इस ग्रन्थ में मानव निर्माण की शतवर्षीय अनुपम योजना है। महर्षि इस ग्रन्थ में सुस्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि - "जैसे सब पदार्थों को उत्कृष्ट करने की विद्या हैवैसे सन्तान को उत्कृष्ट करने की यही विद्या है।" (गर्भाधान संस्कार) मानव जीवन की कोई भी अवस्था संस्कार शून्य नहीं है। गर्भ से ही मनुष्य संस्कारों में पलता हैशैशव से यौवन तक संस्कारों में ही पनपता है और प्रौढावस्था से अन्तिम अवस्था तक इन्हीं में अन्तर्हित रहता है। मानवता सम्बन्धी सर्वोच्च गुणों को धारण करने के लिए जिन सत्प्रेरणाओं मेंसद्‌भावनाओं तथा सत्संकल्प की आवश्यकता पड़ती हैउन्हीं को मानव हृदय में वपन करने का नाम ही संस्कार है। यही कारण है कि आर्यसमाज संस्कारों के प्रचलन पर इतना बल देता है।

आर्यसमाज के सिद्धान्त- आर्यसमाज की शिक्षा-प्रणालीआर्यसमाज की विचारधारा सभी कुछ मानवता के प्रचार में प्रबल सहायक है। मानवता का प्रचारक आर्यसमाज मानव का सर्वांगीण सम्पूर्ण विकास चाहता है एवं कामना करता है कि धरती का प्रत्येक मानव अभ्युदय और नि:श्रेयस की सिद्धि प्राप्त करे। आर्यसमाज ऊंच-नीच के भेद-भाव को समाप्त कर समता का पाठ पढाता है। यही मानवता का आदर्श है। आर्यसमाज ने अज्ञानअन्याय और अभाव की समाप्ति का प्रबल अभियान छेड़ा है। वह चाहता है कि प्रत्येक मानवतावादी व्यक्ति जो अज्ञानअन्याय और अभाव की परिसमाप्ति का इच्छुक हैआर्यसमाज के इस कार्यक्रम का सहयोगी बने।

अन्तिम निवेदन- मानव-मात्र से हमारा विनम्रता पूर्वक प्रबल निवेदन है कि यदि आर्यसमाज की उपर्युक्त चाहना को आप उचित समझते हैं और यदि सच्चे दिल से चाहते हैं कि मानव मात्र की सर्वांगीण उन्नति हो और निर्माण हो शुद्ध मानव कातो महर्षि दयानन्द के कथनानुसार-"आर्यसमाज के साथ मिलकर उसके उद्देश्यानुसार आचरण करना स्वीकार कीजिए नहीं तो कुछ हाथ न लगेगा।" आर्यसमाज ही एक ऐसा बैंक है कि जहॉं चरित्रवाननीतिवान्‌ और सज्जन व्यक्तियों के निर्माण की पूंजी प्राप्त की जा सकती है। तो आइये ! विश्वनिर्माण करने की बातें सोचने से पहले हम मानव-निर्माण की बात सोचें और उन्हें क्रियान्वित करें। तभी मानवता का कल्याण है और विश्व का भी। लेखक - आचार्य डॉ.संजय देव

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