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स्वामी दयानन्द और हिन्दी भाषा

उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध पुनर्जागरण का काल था। विदेशी दासता से मुक्ति के लिए इस काल में भारत की जनता ने घोर संघर्ष किये। दादाभाई नौरोजी, गोपालकृष्ण गोखले, राजा राममोहन राय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, केशवचन्द्र सेन, देवेन्द्रेनाथ ठाकुर, नवीनचन्द्र राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गान्धी, लाला लाजपतराय जैसे अनेक नेता हुए, जिन्होंने भारत को विदेशी सत्ता से मुक्त कराने तथा देश की एकता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, किन्तु इनमें एक ही महापुरुष ऐसा हुआ जो विदेशी भाषा नहीं जानता था, जिसने स्वदेश से बाहर एक कदम भी नहीं रखा था, जो स्वदेश के अन्न-जल से पला था, जो भाषा और वेश में स्वदेशी था, परन्तु जो वीतराग था, परम विद्वान्‌ था, सबका श्रद्धा-भाजन था, जिसे देशी-विदेशी सभी मान देते थे, वह महापुरुष था- महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्य समाज का संस्थापक।

महर्षि दयानन्द "एक देश, एक भाषा" के सूत्र के प्रबल समर्थक थे। वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान्‌ थे। उनकी मातृभाषा गुजराती थी। प्रारम्भ में वे संस्कृत भाषा में अपने प्रवचन करते थे, किन्तु 1874 ई. में ब्रह्मसमाज के नेता पं. केशवचन्द्र सेन से जब वे कलकत्ता में मिले, तो उन्होंने स्वामी जी से देश की एकता के लिए हिन्दी अपनाने की सलाह दी। स्वामी जी ने हिन्दी भाषा में बोलना शुरू किया। उन्हें अनुभव हुआ कि उनकी बात सब सरलता और सहजता से समझ जाते हैं। देवनागरी लिपि की महत्ता तो उन्हें बचपन से ही ज्ञात थी। अत: उन्होंने वेदों के भाष्य और आत्मचरित्र हिन्दी में लिखे। उन्होंने अपने गौरव ग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश" के द्वितीय समुल्लास में लिखा कि बालकों की प्रारम्भिक शिक्षा देवनागरी लिपि और आर्य भाषा में शुरू की जाये।"

स्वामी जी के निर्देशानुसार 10 अप्रैल 1875 ई. को बम्बई में "आर्य समाज" की स्थापना हुई। आर्य समाज के अनुयायियों, आर्य विद्यालयों और आर्य समाजी समाचार पत्रों की भाषा आर्य भाषा हिन्दी स्वीकार की गई। परिणामत: आर्य समाज का सारा कामकाज्‌ सन्‌ 1875 ई. के बाद हिन्दी भाषा में होने लगा। स्वामी जी से जब यह कहा गया कि उनके द्वारा लिखित ग्रन्थों का अनुवाद उर्दू, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में कर दिया जाये तो उपकी उपयोगिता में वृद्धि होगी, इस पर स्वामी जी ने कहा "नहीं भाई, मेरी आंखें तो उस दिन को देखने को तरस रही हैं जब काश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का ही प्रयोग और प्रचार हो। मैंने आर्यावर्त्त भर में भाषा की एकता सम्पादन करने के लिए अपने सारे ग्रन्थ आर्य भाषा में लिखे और प्रकाशित किये हैं। जिन्हें मेरे ग्रंथो को जानने की इच्छा हो, वे आर्य भाषा सीखें। अनुवाद तो विदेशियों के लिए होते हैं। अनुवादों से हिन्दी और संस्कृत का अहित ही होगा।"

किसी देश की भाषा और इतिहास को नष्ट कर देने से उस देश की सभ्यता और संस्कृति स्वयमेव नष्ट हो जाती है। इसलिए स्वामी जी भारत के नव-निर्माण में विदेशी भाषा, भिन्न-भिन्न देशी भाषा और पृथक्‌-पृथक्‌ शिक्षा को एक बड़ी रुकावट मानते थे। वे इस रुकावट को दूर करने के लिए एक भाषा हिन्दी को अपनाने के पक्षधर थे। उन्होंने अपने ग्रन्थों को हिन्दी में लिखा और प्रत्येक आर्य समाजी को हिन्दी में शिक्षा लेने और देने का निर्देश दिया। परिणामत: पंजाब, उत्तर प्रदेश, बंगाल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात हिन्दी प्रचार के केन्द्र बन गये।

स्वामी जी ने हिन्दी प्रचार के लिए अन्य धार्मिक संगठनों को प्रेरित किया। थियासॉफिकल सोसायटी और सनातन धर्म सभा के नेताओं को उन्होंने हिन्दी अपनाने का परामर्श दिया। साथ ही देशी राजा-महाराजाओं को अपने-अपने राज्य की भाषा हिन्दी कर देने का आग्रह किया। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह, जोधपुर के महाराजा प्रताप सिंह और इंदौर के महाराजा तुकोजीराव ने उनके परामर्श से अदालती भाषा हिन्दी करने के आदेश निकाले थे। वे हिन्दी पत्रकारिता के भी पक्षधर थे। उन्होंने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा प्रकाशित पत्रिका "कविवचनसुधा" में विज्ञापन देकर हिन्दी प्रचार की प्रेरणा दी तथा "आर्य दर्पण" नामक मासिक पत्र का प्रकाशन करवाकर हिन्दी भाषा को बढावा दिया। उनके प्रवचनों, व्याख्यानों और शास्त्रार्थों से हिन्दी का प्रचार व्यापक होता गया।

स्वामी जी सरल और शुद्ध हिन्दी के समर्थक थे। वे लोक-व्यवहार में प्रचलित अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेजी, फ्रांसीसी बोलियों के शब्दों के प्रयोग को बढावा नहीं देते थे।  वे उच्चारण सौकर्य के लिए शब्दों के संस्कृतीकरण को स्वीकार करते थे। अलेक्जेण्डर को अलक्षेन्द्र, मैक्सम्यूलर को मोक्षमूलर, शैक्सपीयर को शिक्षाप्रिय बोलना उन्हें पसन्द था। वे विदेशीपन के विरोधी थे। अंग्रेजी-हिन्दी के पचड़े में न पड़कर वे दुभाषियों की मदद से विदेशियों से बातचीत करने का आग्रह करते थे।

स्वामी जी ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी-भाषा के प्रचार, प्रसार और अभिवर्द्धन में महान्‌ योगदान किया है। उनकी स्वतन्त्र और निर्भीक आलोचनाएं, उनके भाष्य और खण्डन-मण्डन-परक ग्रन्थ, उनके प्रवचन और व्याख्यान, उनके शास्त्रार्थ और चुटीले व्यंग्य, उनके दृष्टान्त और पत्रकारिता तथा उनकी प्रश्नोत्तर और शास्त्रार्थ शैली हिन्दी की अमूल्य निधियॉं हैं। दयानन्द की वाग्मिता और मेधा का प्रकाशन जिस हिन्दी में हुआ है, वह अखण्ड और विशाल भारत की राष्ट्रीय हिन्दी है। यह हिन्दी देश की पर्याय है, जिसे गर्व से कहा जाता है- हिन्दी भारत है और भारत हिन्दी है। यह वह हिन्दी है, जिसने ब्राह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, सनातनधर्म सभा, थियोसॉफिकल सोसायटी और देश प्रेमी संस्थाओं को एक मंच पर खड़ाकर राष्ट्रोत्थान के महामन्त्र का उद्‌घोष किया है। - डॉ. परमेश्वरदास शर्मा

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Maharishi Dayanand was a strong supporter of the formula of "one country, one language". He was a scholar of Sanskrit language. His mother tongue was Gujarati. Initially he used to give his sermons in Sanskrit language, but in 1874 AD when he met the leader of Brahmajam, Pt. Keshav Chandra Sen in Calcutta, he advised Swamiji to adopt Hindi for the unity of the country. Swamiji started speaking in Hindi language.

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